Festival of Jivitputrika (Jitiya)


जीवित्‍पुत्रिका (जितिया)

जीवित्‍पुत्रिका (Jivitputrika) या जितिया (Jitiya) व्रत हिन्‍दू धर्म में आस्‍था रखने वाली महिलाओं के लिए विशेष महत्‍व रखता है. यह व्रत संतान की मंगल कामना के लिए किया जाता है. महिलाएं अपने बच्‍चों की लंबी उम्र और उसकी रक्षा के लिए इस निर्जला व्रत को रखती हैं. यह व्रत पूरे तीन दिन तक चलता है. व्रत के दूसरे दिन व्रत रखने वाली महिला पूरे दिन और पूरी रात जल की एक बूंद भी ग्रहण नहीं करती है. यह व्रत उत्तर भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित है. पड़ोसी देश नेपाल में भी महिलाएं बढ़-चढ़ कर इस व्रत को करती हैं.

जिवित्पुत्रिका व्रत तिथि

आश्विन मास की अष्टमी को ये निर्जला व्रत होता है. यह उत्सव तीन दिनों का होता है. सप्तमी का दिन नहाय खाय के रूप में मनाया जाता है, अष्टमी को निर्जला उपवास रखते हैं, फिर नवमी के दिन व्रत का पारण किया जाता है.

नहाय खाय विधि

सप्तमी के दिन नहाय खाय का नियम होता है. बिल्कुल छठ की तरह ही जिउतिया में नहाय खाय होता है. इस दिन महिलाएं सुबह-सुबह उठकर गंगा स्नान करती हैं और पूजा करती हैं. अगर आपके आसपास गंगा नहीं हैं तो आप सामान्य स्नान कर भी पूजा का संकल्प ले सकती हैं. नहाय खाय के दिन सिर्फ एक बार ही भोजन करना होता है. इस दिन सात्विक भोजन किया जाता है. नहाय खाय की रात को छत पर जाकर चारों दिशाओं में कुछ खाना रख दिया जाता है. ऐसी मान्यता है कि यह खाना चील व सियारिन के लिए रखा जाता है.

व्रत का दूसरा दिन- निर्जला व्रत

व्रत के दूसरे दिन को खुर जितिया कहा जाता है. इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं और अगले दिन पारण तक कुछ भी ग्रहण नहीं करतीं.

तीसरा दिन- पारण का दिन

व्रत तीसरे और आखिरी दिन पारण किया जाता है. जितिया के पारण के नियम भी अलग-अलग जगहों पर भिन्न हैं. कुछ क्षेत्रों में इस दिन नोनी का साग, मड़ुआ की रोटी आदि खाई जाती है.

पारण विधि

यह जीवित्पुत्रिका व्रत का अंतिम दिन होता हैं. जिउतिया व्रत में कुछ भी खाया या पिया नहीं जाता, इसलिए यह निर्जला व्रत होता है. व्रत का पारण अगले दिन प्रातः काल किया जाता है, जिसके बाद आप कैसा भी भोजन कर सकते है.


जितिया व्रत से पूर्व क्यों खाई जाती है मछली, जानिए इस दिन मड़ूआ की रोटी, झिंगनी की सब्जी और नोनी की साग खाने की क्यों है परंपरा


संतान की खुशहाली के लिए रखे जानेवाले व्रत जितिया में सप्‍तमी यानी नहाय-खाय के दिन से ही नियमों का पालन शुरू कर दिया जाता है. इस व्रत को शुरू करने से पहले अलग-अलग क्षेत्रों में खान-पान अपनी क्षेत्रीय परंपरा है. ऐसी मान्यता है कि इन चीजों के सेवन से व्रत शुभ और सफल होता है. संतान की खुशहाली और उसकी लंबी कामना की लिए जितिया का व्रत किया जाता है. उत्तर प्रदेश, बिहार के मिथलांचल सहित, पूर्वांचल और नेपाल में काफी लोग इस व्रत को करते हैं. क्षेत्रीय परंपराओं के आधार पर किए जाने वाले इस व्रत में महिलाएं 24 घंटे या कई बार उससे भी ज्यादा समय के लिए महिलाएं निर्जला उपवास रखती हैं.

संतान की खुशहाली और उसकी लंबी कामना के लिए जीवित्पुत्रिका या जितिया का व्रत किया जाता है. बिहार के मिथलांचल सहित, पूर्वांचल और कुछ हद तक नेपाल में काफी लोग इस व्रत को करते हैं. क्षेत्रीय परंपराओं के आधार पर किए जाने वाले इस व्रत में महिलाएं 24 घंटे या कई बार उससे भी अधिक समय के लिए महिलाएं निर्जला उपवास रखती हैं. इस व्रत को जीवित्पुत्रिका या जितिया व्रत भी कहा जाता है.

जितिया व्रत प्रतिवर्ष अश्विन माह में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है. इस व्रत की शुरुआत सप्तमी तिथि से नहाय-खाय के साथ शुरू हो जाती है और नवमी तिथि को इस व्रत का पारण के साथ इसका समापन किया जाता है. इस व्रत को शुरू करने को लेकर अलग-अलग क्षेत्रों में खानपान की अपनी अलग-अलग परंपरा है. यह परंपरा बेहद दिलचस्प है, तो आइए जानते है कि जितिया व्रत से जुड़ी परंपराओं की पूरी जानकारी.

मछली खाने की परंपरा

जितिया व्रत से एक दिन पहले नहाय खाय के दिन मछली खाने की परंपरा है. मछली खाना वैसे तो पूजा-पाठ के दौरान मांसाहार को वर्जित माना गया है, लेकिन बिहार के कई क्षेत्रों में, जैसे कि मिथलांचल में जितिया व्रत के उपवास की शुरुआत मछली खाकर की जाती है, इसके पीछे चील और सियार से जुड़ी जितिया व्रत की एक पौराणिक कथा है. इस कथा के आधार पर मान्यता है कि मछली खाने से व्रत की शुरुआत करनी चाहिए. और यहां मछली खाकर इस व्रत की शुरुआत करना बहुत शुभ माना जाता है.

मड़ूआ की रोटी खाने का प्रचलन

मड़ूआ की रोटी इस व्रत से पहले नहाय-खाय के दिन गेंहू की बजाय मड़ूआ के आटे की भी रोटी बनाने का भी प्रचलन है. और इन रोटियों को खाने का भी प्रचलन है. मड़ूआ के आटे से बनी रोटियों का खाना इस दिन बहुत शुभ माना गया है. यह परंपरा सदियों से चली आ रही है.

झिंगनी की सब्जी खाने की परंपरा

झिंगनी इस व्रत और पूजा के दौरान झिंगनी की सब्जी भी खाई जाती है. झिंगनी आमतौर पर शाकाहारी महिलाएं खाती हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्रों में भी खाई जाती है.

नोनी का साग खाने की परंपरा

नोनी का साग इस व्रत में नोनी का साग बनाने की परंपरा और खाने की परंपरा है. नोनी में केल्शियम और आयरन प्रचुर मात्रा में होता है. ऐसे में इसे लंबे उपवास से पहले खाने से कब्ज आदि की शिकायत नहीं होती है. और पाचन भी ठीक रहता है. इसलिए नहाय-खाय के दिन ही नोनी का साग खाया जाता है. पारण के दिन भी नोनी का साग खाया जाता है.

इस व्रत के पारण के दिन महिलाएं लाल रंग का धागा गले में धारण करती हैं, जितिया व्रत का लॉकेट जिसमें जीमूतवाहन की तस्वीर लगी होती है, उसे भी धारण करती हैं. इस व्रत में किसी-किसी क्षेत्र में सरसों के तेल और खली का भी प्रयोग होता है. जीमूतवाहन भगवान की पूजा में सरसों का तेल और खली चढ़ाई जाती है. व्रत समाप्त होने के बाद इस तेल को बच्चों के सिर पर आशीर्वाद के रूप में लगाया जाता है.


जीवित्‍पुत्रिका या जितिया व्रत से जुड़ी अलग-अलग कहानियां हैं। जितिया व्रत के बारे में आस्‍था है कि इसे करने से भगवान जीऊतवाहन, पुत्र पर आने वाली सभी समस्याओं से उसकी रक्षा करतें हैं. इस व्रत को विवाहित महिलाएं करती हैं. मान्‍यता है कि इसे करने से पुत्र प्राप्ति भी होती है.


जीवित्पुत्रिका व्रत कथा-1

जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है। संक्षेप में वह इस प्रकार है –

गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बड़े उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए। वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया। एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी. इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया – मैं नागवंशकी स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है। पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा – डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा. इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड बड़े वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए। अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुडजी बड़े आश्चर्य में पड गए। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया. गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. प्रसन्न होकर गरुड जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया।

इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई।

आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है। व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है। यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है।


जीवित्पुत्रिका व्रत कथा-2

नर्मदा नदी के पास कंचनबटी नाम का नगर था. वहां का राजा मलयकेतु था. नर्मदा नदी के पश्चिम दिशा में मरुभूमि थी, जिसे बालुहटा कहा जाता था. वहां विशाल पाकड़ का पेड़ था. उस पर चील रहती थी. पेड़ के नीचे खोधर था, जिसमें सियारिन रहती थी. चील और सियारिन, दोनों में दोस्‍ती थी. एक बार दोनों ने मिलकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया. फिर दोनों ने भगवान जीऊतवाहन की पूजा के लिए निर्जला व्रत रखा. व्रत वाले दिन उस नगर के बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गयी. अब उसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया.

काली रात हुई और घनघोर घटा बरसने लगी. कभी बिजली कड़कती तो कभी बादल गरजते. तूफ़ान आ गया था. सियारिन को अब भूख लगने लगी थी. मुर्दा देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया. पर चील ने संयम रखा और नियम व श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया

फिर अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया. उनके पिता का नाम भास्कर था. चील, बड़ी बहन बनी और उसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई। सिया‍रन, छोटी बहन के रूप में जन्‍मी और उसका नाम कपुरावती रखा गया. उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई. अब कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बन गई। भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए. पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे.

कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए. वे सभी राजा के दरबार में काम करने लगे. कपुरावती के मन में उन्‍हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी. उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए. उन्‍हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया.

यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिटटी से सातों भाइयों के सर बनाए और सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया. इससे उनमें जान आ गई. सातों युवक जिंदा हो गए और घर लौट आए. जो कटे सर रानी ने भेजे थे वे फल बन गए. दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी. जब काफी देर सूचना नहीं आई तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी. वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गयी.

जब उसे होश आया तो बहन को उसने सारी बात बताई. अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था. भगवान जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं. वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं. कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई. जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्‍होंने उसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया.


जीवित्पुत्रिका व्रत कथा-3

जितिया के बारे में एक और कथा प्रचलित है. इस व्रत की कथा महाभारत काल से संबंधित है –

कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध में अपने पिता की मौत के बाद अश्वत्थामा बहुत नाराज था. उसके हृदय में बदले की भावना भड़क रही थी. इसी के चलते वह पांडवों के शिविर में घुस गया. शिविर के अंदर पांच लोग सो रहे थे. अश्वत्थामा ने उन्‍हें पांडव समझकर उन्‍हें मार डाला. वे सभी द्रोपदी की पांच संतानें थीं. फिर अुर्जन ने उसे बंदी बनाकर उसकी दिव्‍य मणि छीन ली. अश्वत्थामा ने बदला लेने के लिए अभिमन्‍यु की पत्‍नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्‍चे को मारने की साजिश रची. उसने ब्रह्मास्‍त्र का इस्‍तेमाल कर उत्तरा के गर्भ को नष्‍ट कर दिया. ऐसे में भगवान श्रीकृष्‍ण ने अपने सभी पुण्‍यों का फल उत्तरा की अजन्‍मी संतान को देकर उसको गर्भ में फिर से जीवित कर दिया. गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उस बच्‍चे का नाम जीवित्‍पुत्रिका पड़ा. तब से ही संतान की लंबी उम्र और मंगल के लिए जितिया का व्रत किया जाने लगा. आगे चलकर यही बच्‍चा राजा परीक्षित बना.