जीवित्पुत्रिका (जितिया)
जितिया व्रत से पूर्व क्यों खाई जाती है मछली, जानिए इस दिन मड़ूआ की रोटी, झिंगनी की सब्जी और नोनी की साग खाने की क्यों है परंपरा
जीवित्पुत्रिका या जितिया व्रत से जुड़ी अलग-अलग कहानियां हैं। जितिया व्रत के बारे में आस्था है कि इसे करने से भगवान जीऊतवाहन, पुत्र पर आने वाली सभी समस्याओं से उसकी रक्षा करतें हैं. इस व्रत को विवाहित महिलाएं करती हैं. मान्यता है कि इसे करने से पुत्र प्राप्ति भी होती है.
जीवित्पुत्रिका व्रत कथा-1
जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है। संक्षेप में वह इस प्रकार है –
गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बड़े उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए। वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया। एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी. इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया – मैं नागवंशकी स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है। पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा – डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा. इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड बड़े वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए। अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुडजी बड़े आश्चर्य में पड गए। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया. गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. प्रसन्न होकर गरुड जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया।
इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई।
आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है। व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है। यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है।
जीवित्पुत्रिका व्रत कथा-2
नर्मदा नदी के पास कंचनबटी नाम का नगर था. वहां का राजा मलयकेतु था. नर्मदा नदी के पश्चिम दिशा में मरुभूमि थी, जिसे बालुहटा कहा जाता था. वहां विशाल पाकड़ का पेड़ था. उस पर चील रहती थी. पेड़ के नीचे खोधर था, जिसमें सियारिन रहती थी. चील और सियारिन, दोनों में दोस्ती थी. एक बार दोनों ने मिलकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया. फिर दोनों ने भगवान जीऊतवाहन की पूजा के लिए निर्जला व्रत रखा. व्रत वाले दिन उस नगर के बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गयी. अब उसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया.
काली रात हुई और घनघोर घटा बरसने लगी. कभी बिजली कड़कती तो कभी बादल गरजते. तूफ़ान आ गया था. सियारिन को अब भूख लगने लगी थी. मुर्दा देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया. पर चील ने संयम रखा और नियम व श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया
फिर अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया. उनके पिता का नाम भास्कर था. चील, बड़ी बहन बनी और उसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई। सियारन, छोटी बहन के रूप में जन्मी और उसका नाम कपुरावती रखा गया. उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई. अब कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बन गई। भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए. पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे.
कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए. वे सभी राजा के दरबार में काम करने लगे. कपुरावती के मन में उन्हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी. उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए. उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया.
यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिटटी से सातों भाइयों के सर बनाए और सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया. इससे उनमें जान आ गई. सातों युवक जिंदा हो गए और घर लौट आए. जो कटे सर रानी ने भेजे थे वे फल बन गए. दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी. जब काफी देर सूचना नहीं आई तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी. वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गयी.
जब उसे होश आया तो बहन को उसने सारी बात बताई. अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था. भगवान जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं. वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं. कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई. जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्होंने उसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया.
जीवित्पुत्रिका व्रत कथा-3
जितिया के बारे में एक और कथा प्रचलित है. इस व्रत की कथा महाभारत काल से संबंधित है –
कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध में अपने पिता की मौत के बाद अश्वत्थामा बहुत नाराज था. उसके हृदय में बदले की भावना भड़क रही थी. इसी के चलते वह पांडवों के शिविर में घुस गया. शिविर के अंदर पांच लोग सो रहे थे. अश्वत्थामा ने उन्हें पांडव समझकर उन्हें मार डाला. वे सभी द्रोपदी की पांच संतानें थीं. फिर अुर्जन ने उसे बंदी बनाकर उसकी दिव्य मणि छीन ली. अश्वत्थामा ने बदला लेने के लिए अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को मारने की साजिश रची. उसने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल कर उत्तरा के गर्भ को नष्ट कर दिया. ऐसे में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में फिर से जीवित कर दिया. गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उस बच्चे का नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा. तब से ही संतान की लंबी उम्र और मंगल के लिए जितिया का व्रत किया जाने लगा. आगे चलकर यही बच्चा राजा परीक्षित बना.